संत कबीर के दोहे
दुख
में सुमिरन सब करे, सुख
में करे न कोय।
जो
सुख में सुमिरन करे, दुख
कहे को होय।।
कबीर दास जी कहते हैं की दु
:ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे
सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो।
तिनका
कबहूँ ना निंदिये, जो
पाँव तले होय।
कबहूँ
उड़ आँखों मे पड़े, पीर
घनेरी होय।।
तिनका को भी छोटा नहीं समझना
चाहिए चाहे वो आपके पाँव तले हीं क्यूँ न हो क्यूंकि यदि वह उड़कर आपकी आँखों में
चला जाए तो बहुत तकलीफ देता है।
माला
फेरत जुग भया, फिरा
न मन का फेर।
कर
का मन का डार दें, मन
का मनका फेर।।
कबीरदास जी कहते हैं कि माला
फेरते-फेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ है। हे मनुष्य ! हाथ का
मनका छोड़ दे और अपने मन रूपी मनके को फेर, अर्थात
मन का सुधार कर।
गुरु
गोविंद दोनों खड़े, काके
लागूं पाँय।
बलिहारी
गुरु आपनो, गोविन्द
दियो बताय।।
गुरु और भगवान दोनों मेरे
सामने खड़े हैं मैं किसके पाँव पड़ूँ ? क्यूंकि
दोनों दोनों हीं मेरे लिए समान हैं। कबीर जी कहते हैं कि यह तो गुरु कि हीं
बलिहारी है जिन्होने हमे परमात्मा की ओर इशारा कर के मुझे गोविंद
(ईश्वर) के कृपा का पात्र बनाया।
कबीर
माला मनहि कि, और
संसारी भीख।
माला
फेरे हरि मिले, गले
रहट के देख ॥
कबीरदास ने कहा है कि माला
तो मन कि होती है बाकी तो सब लोक दिखावा है। अगर माला फेरने से ईश्वर मिलता हो तो
रहट के गले को देख, कितनी
बार माला फिरती है। मन की माला फेरने से हीं परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है।
सुख
में सुमिरन न किया, दु:ख
में किया याद।
कह
कबीरा ता दास की, कौन
सुने फ़रियाद ॥
सुख में तो कभी याद किया
नहीं और जब दुख आया तब याद करने लगे, कबीर
दास जी कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुनेगा।
साई
इतना दीजिये, जा
में कुटुम समाय।
मै
भी भूखा न रहूँ, साधू
न भूखा जाय ॥
कबीर दास जी ने ईश्वर से यह
प्रार्थना करते हैं की हे परमेश्वर तुम मुझे इतना दो की जिसमे परिवार का गुजारा हो
जाय। मुझे भी भूखा न रहना पड़े और कोई अतिथि अथवा साधू भी मेरे द्वार से भूखा न
लौटे।
लूट
सके तो लूट ले, राम
नाम की लूट।
पाछे
फिर पछताओगे, प्राण
जाहिं जब छूट ॥
कबीरदास जी ने कहा है की हे
प्राणी, चारो
तरफ ईश्वर के नाम की लूट मची है, अगर
लेना चाहते हो तो ले लो, जब
समय निकल जाएगा तब तू पछताएगा। अर्थात जब तेरे प्राण निकल जाएंगे तो भगवान का नाम
कैसे जप पाएगा।
जाति
न पुछो साधू की, पूछ
लीजिये ज्ञान।
मोल
करो तलवार का, पड़ा
रहन दो म्यान ॥
किसी साधू से उसकी जाति न
पुछो बल्कि उससे ज्ञान की बात पुछो। इसी तरह तलवार की कीमत पुछो म्यान को पड़ा रहने
दो, क्योंकि
महत्व तलवार का होता है न की म्यान का।
जहाँ दया
तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ
तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध
तहाँ काल है, जहाँ क्षमा
तहाँ आप ॥
जहाँ दया है वहीं धर्म है और
जहाँ लोभ है वहाँ पाप है, और
जहाँ क्रोध है वहाँ काल (नाश) है।
और जहाँ क्षमा है वहाँ स्वयं भगवान होते हैं।
धीरे-धीरे
रे मना, धीरे
सब कुछ होय।
माली
सींचे सौ घड़ा, ऋतु
आए फल होय ॥
हे मन ! धीरे-धीरे सब कुछ हो
जाएगा माली सैंकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है परंतु फल तो ऋतु के आने पर हीं लगता
है। अर्थात धैर्य रखने से और सही समय आने पर हीं काम पूरे होते हैं।
कबीरा
ते नर अन्ध हैं, गुरु
को कहते और।
हरि
रूठे गुरु ठौर है, गुरु
रूठे नहीं ठौर ॥
कबीरदास जी कहते हैं की वे
नर अंधे हैं जो गुरु को भगवान से छोटा मानते हैं क्यूंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर
एक गुरु का सहारा तो है लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद कोई ठिकाना नहीं है।
पाँच
पहर धन्धे गया, तीन
पहर गया सोय।
एक
पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति
कैसे होय ॥
प्रतिदिन के आठ पहर में से
पाँच पहर तो काम धन्धे में खो दिये और तीन पहर सो गया। इस प्रकार तूने एक भी पहर
हरि भजन के लिए नहीं रखा, फिर
मोक्ष कैसे पा सकेगा
कबीरा
सोया क्या करे, उठी
न भजे भगवान।
जम
जब घर ले जायेंगे, पड़ी
रहेगी म्यान ॥
कबीरदास जी कहते हैं की हे
प्राणी ! तू सोता रहता है (अपनी चेतना को जगाओ) उठकर भगवान को भज क्यूंकि जिस समय
यमदूत तुझे अपने साथ ले जाएंगे तो तेरा यह शरीर खाली म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा।
शीलवन्त
सबसे बड़ा, सब
रतनन की खान।
तीन
लोक की सम्पदा, रही
शील मे आन ॥
जो शील (शान्त एवं सदाचारी)
स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया
शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है।
माया मरी न
मन मरा, मर-मर गया शरीर।
आशा तृष्णा न
मरी, कह गए दास कबीर ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि
मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का
भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है। यही कारण है कि मनुष्य दु:ख
रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है।
माटी कहे
कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
इक दिन ऐसा
आएगा, मै रौंदूंगी तोय ॥
मिट्टी कुम्हार से कहती है
कि तू मुझे क्या रौंदता है। एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी। अर्थात मृत्यु
के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा।
रात गंवाई
सोय के, दिन गंवाई खाय।
हीरा जनम
अनमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥
रात तो सोकर गंवा दी और
दिन खाने-पीने में गंवा दिया। यह हीरे जैसा अनमोल मनुष्य रूपी जन्म को कौड़ियो मे
बदल दिया।
नींद निशानी
मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन
छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥
कबीरदास जी कहते हैं की हे
प्राणी ! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी
रसायनों मे मन लगा।
जो टोकू
कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के
फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥
जो तेरे लिए कांटा बोय तू
उसके लिए फूल बो। तुझे फूल के फूल मिलेंगे और जो तेरे लिए कांटा बोएगा उसे त्रिशूल
के समान तेज चुभने वाले कांटे मिलेंगे। इस दोहे में कबीरदास जी ने या शिक्षा दी है
की हे मनुष्य तू सबके लिए भला कर जो तेरे लिए बुरा करेंगें वो स्वयं अपने
दुष्कर्मों का फल पाएंगे।
दुर्लभ मानुष
जनम है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों
पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
यह मनुष्य जन्म बड़ी
मुश्किल से मिलता है और यह देह बार-बार नहीं मिलती। जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने
के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकती। अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए
और अच्छे कर्मों मे लग जाइए।
आए हैं सो
जाएंगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन
चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर ॥
जो आया है वो इस दुनिया से
जरूर जाएगा वह चाहे राजा हो, कंगाल हो या फकीर हो सबको इस दुनिया से जाना है लेकिन कोई सिंहासन पर
बैठकर जाएगा और कोई जंजीर से बंधकर। अर्थात जो भले काम करेंगें वो तो सम्मान के
साथ विदा होंगे और जो बुरा काम करेंगें वो बुराई रूपी जंजीर मे बंधकर जाएंगे।
काल करे सो
आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय
होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
जो कल करना है उसे आज कर
और जो आज करना है उसे अभी कर। समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती
हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालिए।
माँगन मरण
समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन ते
मरना भला, यही सतगुरु की सीख ॥
माँगना मरने के बराबर है
इसलिए किसी से भीख मत माँगो। सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर
है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत
से प्राप्त करें न की किसी से माँगकर।
जहाँ आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग।
कह कबीर यह
क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥
जहाँ मनुष्य में घमंड हो
जाता है उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ वहाँ निराशा और
चिंता होने लगती है। कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते
हैं।
माया छाया एक
सी, बिरला जाने कोय।
भागता के
पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥
माया और छाया एक जैसी है
इसे कोई-कोई ही जानता है यह भागने वालों के पीछे ही भागती है, और जो सम्मुख खड़ा होकर
इसका सामना करता है तो वह स्वयं हीं भाग जाती है।
आया था किस
काम को, तू सोया चादर तान।
सूरत सम्हाल
ऐ गाफिल, अपना आप पहचान ॥
कबीरदास जी कहते हैं की ऐ
गाफिल ! तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने
आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है ? स्वयं को पहचान और अच्छे
कर्म कर।
क्या भरोसा
देह का, बिनस जात छिन मांह।
साँस-साँस
सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥
इस शरीर का क्या विश्वास
है यह तो पल-पल मिटता हीं जा रहा है इसीलिए अपने हर साँस पर हरी का सुमिरन करो और
दूसरा कोई उपाय नहीं है।
गारी हीं सों
उपजे, कलह, कष्ट और मींच।
हारि चले सो
साधु है, लागि चले सो नीच ॥
गाली (दुर्वचन) से हीं कलह, दु:ख तथा मृत्यु पैदा होती
है जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाए वही साधु जानो यानी सज्जन पुरुष। और जो गाली
देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच प्रवृति का है।
दुर्बल को न
सताइए, जाकि मोटी हाय।
बिना जीव की
साँस सों, लोह भस्म हो जाय ॥
कमजोर को कभी नहीं सताना
चाहिए जिसकी हाय बहुत बड़ी होती है जैसा आपने देखा होगा बिना जीव (प्राणहीन) की
धौंकनी (आग को हवा देने वाला पंखा) की साँस से लोहा भी भस्म हो जाता है।
दान दिए धन
ना घटे, नदी न घटे नीर।
अपनी आँखों
देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥
कबीर जी कहते हैं कि तुम
ध्यान से देखो कि नदी का पानी पीने से कम नहीं होता और दान देने से धन नहीं घटता।
अवगुण कहूँ
शराब का, आपा अहमक़ साथ।
मानुष से
पशुआ करे, दाय गाँठ से खात ॥
मैं तुमसे शराब की बुराई
करता हूँ कि शराब पीकर आदमी आप (स्वयं) पागल होता है, मूर्ख और जानवर बनता है और
जेब से रकम भी लगती है सो अलग।
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