बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

NCERT Solutions for Class 8th Sanskrit Chapter 10 - नीतिनवनीतम् Nitinavneetam

NCERT Solutions for Class 8th Sanskrit Chapter 10 - नीतिनवनीतम्

Saptbhaginyah Hindi Translation and Question Answer

शब्दार्थ, अनुवाद, पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-अभ्यास, योग्यता विस्तार

Class 8 Sanskrit Chapter 10 – नीतिनवनीतम् Summary, Hindi Translation and Question Answer

 

नीतिनवनीतम्

NCERT Solutions for Class 8 Sanskrit Ruchira Chapter 10 नीतिनवनीतम्

पाठ का परिचय (Introduction of the Lesson)
प्रस्तुत पाठ ‘मनुस्मृति’ के कतिपय श्लोकों का संकलन है जो सदाचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ माता-पिता तथा गुरुजनों को आदर और सेवा से प्रसन्न करने वाले अभिवादनशील मनुष्य को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त सुख-दुख में समान रहना, अन्तरात्मा को आनन्दित करने वाले कार्य करना तथा इसके विपरीत कार्यों को त्यागना, सम्यक् विचारोपरान्त तथा सत्यमार्ग का अनुसरण करते हुए कार्य करना आदि शिष्टाचारों का उल्लेख भी किया गया है।

पाठ-शब्दार्थ एवं सरलार्थ
(
क) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥


शब्दार्थ : अभिवादनशीलस्य-प्रणाम करने के स्वभाव वाले। नित्यम्-प्रतिदिन। वृद्धोपसेविनः-बड़ों (बुजुर्गों) की सेवा करने वाले के। चत्वारि-चार (चीजें) तस्य-उसकी। वर्धन्ते-बढ़ती हैं। यशः-नाम।


सरलार्थः-अभिवादनशील (प्रणाम करने की आदत वाले) तथा प्रतिदिन (सदैव) वृद्धों (बुजुर्गों) की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों चीजें बढ़ती हैं।

 

(ख) यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि।


शब्दार्थ : यम्-जिस (को)। मातापितरौ-माता और पिता। क्लेशम्-कष्ट को। सहेते-सहते हैं। सम्भवे-जना देने में। नृणाम्-मनुष्यों के। तस्य-उसका। निष्कृतिः-बदला। शक्या-समर्थ होते हैं। कर्तुम्-करने में। वर्षशतैः-सौ वर्षों में। अपि-भी।


सरलार्थ:-मनुष्यों (बच्चों) की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण करने में माता-पिता जिस कष्ट को सहते हैं, उसका बदला चुकाने (निराकरण करने) में बच्चा सौ वर्षों में भी समर्थ नहीं हो सकता है।

 

(ग) तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते॥


शब्दार्थ : तयोः-उन दोनों का। नित्यम्-प्रतिदिन। कुर्यात्-करना चाहिए। तेषु-उन (के)। त्रिषु-तीनों के। तुष्टेषु-सन्तुष्ट होने पर। तपः-तपस्या। सर्वम्-सारी। समाप्यते-समाप्त (सार्थक) होती हैं।


सरलार्थ:-उन दोनों (माता और पिता) का और आचार्य को सदा प्रतिदिन (सन्तानों द्वारा) प्रिय करना चाहिए। उन तीनों के ही सन्तुष्ट होने पर सारे तप समाप्त (सार्थक) हो जाते हैं।

 

(घ) सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥


शब्दार्थ : सर्वम्-सारा। परवशम्-दूसरों के वश में (परतन्त्रता में)। आत्मवशम्-अपने वश में (स्वतन्त्रता में)। एतत्-यह। विद्यात्-जानना चाहिए। समासेन-संक्षेप से। सुखदुःखयोः-सुख-दुःख का।


सरलार्थ:-दूसरों के वेश में सारा दु:ख होता है और अपने वश में सब कुछ सुख होता है। इसे ही संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिए।

 

(ङ) यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥


शब्दार्थ : यत्कर्म-जिस काम को। कुर्वतः-करते हुए। अस्य-इस (का) स्यात्-हो। परितोषः-सन्तोष।। अन्तरात्मनः-आत्मा का। तत्-वह। प्रयत्नेन-प्रयत्न से (कोशिश करके)। कुर्वीत-करना चाहिए। विपरीतम्-उल्टा। तु-तो। वर्जयेत्-छोड़ देना चाहिए।


सरलार्थ:-जिस काम को करते हुए इस (अपनी) आत्मा का सन्तोष हो, उस काम को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। उससे विपरीत (उल्टा) तो छोड़ देना चाहिए।

 

(च) दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनः पूतं समाचरेत्॥


शब्दार्थ : दृष्टिपूतम्-आँख से देखकर। न्यसेत्-रखना चाहिए। पादम्-कदम को (पैर को)। वस्त्रपूतम्-कपड़े से छानकर। पिबेत्-पीना चाहिए। सत्यपूताम्-सत्य से परीक्षा करने। वदेत्-बोलना चाहिए। वाचम्-वाणी को। समाचरेत्-आचरण करना चाहिए।


सरलार्थ:-आँख से पवित्र करके (अच्छी तरह देख-भाल करके) पैर रखना चाहिए, कपड़े से छानकर (शुद्ध करके) जल पीना चाहिए। सत्य से पवित्र करके (सत्य से युक्त करके) वाणी बोलनी चाहिए और मन से पवित्र करके (सोच-विचार करके) आचरण-व्यवहार करना चाहिए।

 

अभ्यासः

प्रश्न 1. अधोलिखितानि प्रश्नानाम् उत्तराणि एकपदेन लिखत-
(
क) नृणां संभवे को क्लेशं सहेते?
उत्तरम् - माता-पितरौ।

 

(ख) कीदृशं जलं पिबेत्?
उत्तरम् – वस्त्रपूतं

 

(ग) नीतिनवनीतम् पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलित?
उत्तरम् – मनुस्मृति:

 

(घ) कीदृशीं वाचं वदेत्?
उत्तरम् – सत्यपूतम्

 

(ङ) उद्यानम् कैः निनादैः रम्यम्?
उत्तरम् - संतोष।

 

(च) दुःखं किं भवति?
उत्तरम् - परवशं।

 

(छ) आत्मवशं किं भवति?
उत्तरम् - सुखं।

 

(ज) कीदृशं कर्म समाचरेत्?
उत्तरम् - मनःपूतम्

प्रश्न 2. अधोलिखितानि प्रश्नानाम् उत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत-
(
क) पाठेऽस्मिन् सुखदुःखयों किं लक्षणम् उक्तम्?
उत्तरम् - पाठेऽस्मिन् परवशं दुःखं च आत्मवश सुखं।

 

(ख) वर्षशतैः अपि कस्य निष्कृतिः कर्तुं न शक्या?
उत्तरम् - वर्षशतैः अपि मातापितरौ निष्कृतिः कर्तुं न शक्या।

 

(ग) “त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते” – वाक्येऽस्मिन् त्रयः के सन्ति?
उत्तरम् - त्रयः दैहिक, दैविक, भौतिक सन्ति।

 

(घ) अस्माभिः कीदृशं कर्म कर्तव्यम्?
उत्तरम् - अस्माभिः परितोष: अन्तरात्मनः कर्म कर्त्तव्यम्।

 

(ङ) अभिवादनशीलस्य कानि वर्धन्ते?
उत्तरम् - आयु, विद्या, यश, बलम् च।

 

(च) सर्वदा केषां प्रियं कुर्यात्?
उत्तरम् - सर्वदा माता-पितरौ नित्यं प्रियं कुर्यात्।

 

प्रश्न 3. स्थूलपदान्यवलम्बय प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(
क) वृद्धोपसेविनः आयुर्विद्या यशो बलं न वर्धन्ते
उत्तरम् - केषां आयुर्विद्या यशों बनं न वर्धन्ते?

 

(ख) मनुष्यः सत्यपूतां वाचं वदेत्।
उत्तरम् - मनुष्यः काम् वाचं वदेत्?

 

(ग) त्रिषु तुष्टेषु सर्व तपः समाप्यते।
उत्तरम् - त्रिषु तुष्टेषु सर्वः कः समाप्यते?

 

(घ) मातापितरौ नृणां सम्भवे अकथनीयम् क्लेशं सहेते।
उत्तरम् - कौ नृणां सम्भवे भाषया क्लेशं सहेते?

 

(ङ) तयोः नित्यं प्रियं कुर्यात्।
उत्तरम् - कयोः नित्यं किम् कुर्यात्?

प्रश्न 4. संस्कृतभाषयां वाक्यप्रयोगं कुरुत-
(
क) विद्या
(
ख) तपः
(
ग) समाचरेत्
(
घ) परितोषः
(
ङ) नित्यम
उत्तरम् -
(
क) विद्या – विद्या सर्वधनं प्रधानं अस्ति।
(
ख) तपः – त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते।
(
ग) समाचरेत् – मनः पूतं कर्म समाचरेत्।
(
घ) परितोषः – परितोषं परम् सुखम् अस्ति।
(
ङ) नित्यम – अहं नित्यम् देवालयं गच्छामि।

 

प्रश्न 5. शुद्धवाक्यानां समक्षम् आम् अशुद्धवाक्यानां समक्षं च नैव इति लिखत-
(
क) अभिवादनशीलस्य किमपि न वर्धते।
उत्तरम् - न

 

(ख) मातापितरौ नृणां सम्भवे कष्टं सहेते।
उत्तरम् - आम्

 

(ग) आत्मवशं तु सर्वमेव दुःखमस्ति।
उत्तरम् - न

 

(घ) येन पितरौ आचार्यः च सन्तुष्टाः तस्य सर्व तपः समाप्यते।
उत्तरम् - आम्

 

(ङ) मनुष्यः सदैव मनः पूतं समाचरेत्।
उत्तरम् - आम्

 

(च) मनुष्यः सदैव तदेव कर्म कुर्यात् येनान्तरात्मा तुष्यते।
उत्तरम् - आम्

 

प्रश्न 6. समुचितपदेन रिक्तस्थानानि पूरयत-
(
क) मातापित्रे: तपसः निष्कृतिः __________ कर्तुमशक्या।           (दशवर्षैरपि / षष्टि; वर्षेरपि / वर्षशतैरपि)।
(
ख) नित्यं वृद्धोपसेविनः __________ वर्धन्ते                  (चत्वारि / पञ्च/षट्)।
(
ग) त्रिषु तुष्टेषु __________ सर्वं समाप्यते                      (जप: / तप / कर्म)।
(
घ) एतत् विद्यात् __________ लक्षणं सुखदुःपयो:।         (शरीरेण!समासेन / विस्तारेण)
(
ङ) दृष्टिपूतम् न्यसेत् __________                     (हस्तम् / पादम् / मुखम्)
(
च) मनुष्यः मातापित्रो: आचार्यस्यय च सर्वदा __________ कुर्यात्। (प्रियम् / अप्रियम् / अकार्यम्)

उत्तरम् -
(
क) मातापित्रे: तपसः निष्कृतिः वर्षशतैरपि कर्तुमशक्या। (दशवर्षैरपि / षष्टि; वर्षेरपि / वर्षशतैरपि)।
(
ख) नित्यं वृद्धोपसेविनः चत्वारि वर्धन्ते                          (चत्वारि / पञ्च/षट्)।
(
ग) त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते                                  (जप: / तप / कर्म)।
(
घ) एतत् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःपयो:।                (शरीरेण!समासेन / विस्तारेण)
(
ङ) दृष्टिपूतम् न्यसेत् पादम्।                                      (हस्तम् / पादम् / मुखम्)
(
च) मनुष्यः मातापित्रो: आचार्यस्यय च सर्वदा प्रियम् कुर्यात्। (प्रियम् / अप्रियम् / अकार्यम्)

 

प्रश्न 7. मञ्जूषातः चित्वा उचिताव्ययेन वाक्यपूर्ति कुरुत-
(तावत्, अपि, एव, यथा, नित्यं, यादृशम्)

(क) तयोः _________ प्रियं कुर्यात्।
(
ख) _________ कर्म करिष्यसि। तादृशं फलं प्राप्स्यसि।
(
ग) वर्षशतैः _________ निष्कृतिः न कर्तुं शक्या।
(
घ) तेषु _________ त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते।
(
ङ) _________ राजा तथा प्रजा
(
च) यावत् सफलः न भवति _________ परिश्रमं कुरु।

उत्तरम् -
(
क) तयोः नित्यं प्रियं कुर्यात्।
(
ख) यादृशम् कर्म करिष्यसि। तादृशं फलं प्राप्स्यसि।
(
ग) वर्षशतैः अपि निष्कृतिः न कर्तुं शक्या।
(
घ) तेषु एव त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते।
(
ङ) यथा राजा तथा प्रजा
(
च) यावत् सफलः न भवति तावत् परिश्रमं कुरु।

 

योग्यता-विस्तार

भावविस्तारः संस्कृत साहित्य में जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी कर्तव्य-निर्देश दिए गए हैं जो यत्र-तत्र सुभाषितों और नीतिश्लोकों के रूप में प्राप्त होते हैं। जरूरत है उन्हें ढूँढने वाले मनुष्य की। जीवनमार्ग पर चलते हुए जब किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति आती है तो संस्कृत सूक्तियाँ हमें मार्गबोध कराती हैं। नीतिशतक, विदुरनीति, चाणक्यनीतिदर्पण आदि ग्रन्थ ऐसे ही श्लोकों के अमर भण्डागार हैं।

1. कुछ समानान्तर श्लोक
कर्मणा मनसा वाचा चक्षषाऽपि चतुर्विधम्।
प्रसादयति लोकं यस लोको नु प्रसीदति।


सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥


प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वाचने का दरिद्रता।


यस्मिन् देशे न सम्मानो न प्रीतिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमः कश्चित् न तत्र दिवसं वसेत्।

 

2. संधि की आवृत्ति
शिष्टाचारः             = शिष्ट + आचारः
वृद्धोपसेविन           = वृद्धः + उपसेविन:
आयुर्विद्या              = आयुः + विद्या
यशो बलम्             = यशः + बलम्
वर्षशतैरपि              = वर्षशतैः + अपि
तयोर्नित्यं               = तयोः + नित्यम्
कुर्यादाचार्यस्य        = कुर्यात् + आचार्यस्य
तेष्वेव                    = तेषु + एव
सर्वमात्मवशम्        = सर्वम् + आत्मवशम्
कुर्वतोऽस्य             = कुर्वतः + अस्य
परितोषोऽन्तरात्मनः = परितोषः + अन्तरात्मनः
वदेवाचम्                = वदेत् + वाचम्

3. विधिलिङ् के विविध प्रयोग – (किसी भी काम को) करना चाहिए, इस अर्थ में विधिलिङ् का प्रयोग होता है। पाठ में आए कुछ शब्दों के प्रयोग अधोलिखित हैं-
स्यात् – (अस् धातु)
पिबेत् – (पा पातु)
वर्जयेत् – (वर्ज धातु)
वदेत् – (वद् धातु)
महान्तं प्राप्य सदबुद्ध।
सत्यजेन्न ला घुजनम्।
यत्रास्ति सूिचका कार्य
कृपाणाः किं करिष्यति।

सौहार्द प्रकृतेः शोभा


विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चित् निरर्थकम्।
विश्स्चेत् धावने वीरः भारस्य वहने खरः।

 

ये श्लोक मो इर भी बात की पुष्टि करते हैं कि संसार में कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है। संसार की क्रियाशीलता, गीतशीलता में सभी का अपना-अपना महत्त्व है सभी के अपने-अपने कार्य हैं, अपना-अपना योगदान है, अतः हमें न तो किसी कार्य को छोटा या बड़ा, तुच्छ या महान् समझना चाहिए और न ही किसी प्राणी को आपस में मिल जुल कर सौहार्दपूर्ण तरीके से जीवन यापन से ही प्रकृति का सौन्दर्य है। विभिन्न प्राणियों से संबंधित निम्नलिखित श्लोकों को भी पढ़िए और रसास्वादन कीजिए-

 

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।

 

काकचेष्ट: बकध्यानी शुनोनिद्रः तथैव च।
अल्पाहार: गृहत्यागः विद्यार्थी पञ्चलक्षणम्।।

 

स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः।
हसन्नपि नृपो हन्ति, मानयन्नपि दुर्जनः।।

 

प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो, देवोऽपि तं लवयितुं न शक्तः।
तस्मान शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्।।

 

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

 

वस्तुतः मित्रों के बिना कोई भी जीना पसन्द नहीं करता, चाहे उसके पास बाकी सभी अच्छी चीजें क्यों न हों। अतः हमें सभी के साथ मिलजुल कर अपने आस-पास के वातावरण की सुरक्षा और सुन्दरता में सदैव सहयोग करना चाहिए।

 

अकिञ्चनस्य, दान्तस्य, शान्तस्य समचेतसः।
मया सन्तुष्टमानसः, सर्वाः सुखमयाः दिशः।।

 


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