गुरुवार, 23 नवंबर 2023

संस्कृत-सूक्तयः

 संस्कृत-सूक्तयः
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(
१.)

अति सर्वत्र वर्जयेत् ।

अति से सब जगह बचना चाहिये ।

(२.)
गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ।
गुण पूजा का स्थान है, अर्थात् गुणी व्यक्ति पूजनीय (सम्माननीय) होता है,  इसके लिए लिङ्ग और आयु नहीं देखी जाती ।

(३.)
वज्रात् अपि कठोराणि मृदूनि कुसुमात् अपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि कः नु विज्ञातुम् अर्हति ॥

महान् लोगों का हृदय भी महान् होता है । उनका हृदय वज्र से भी कठोर और फूल से भी अधिक कोमल होता है । उनके हृदय को जान पाना कठिन है ।

(४.)
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाSलङ्कृतोSपि सन् ।
दुर्जन व्यक्ति की सदैव उपेक्षा करनी चाहिए, क्योंकि विद्या से अलङ्कृत होने पर भी वह दुष्ट ही रहता है ।

(५.)

अति तृष्णा विनाशाय ।

अधिक लालच नाश कराती है ।

(६.)
प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति ।
कार्य प्रारम्भ करके श्रेष्ठ लोग पूर्ण किए बिना नहीं छोडते ।

(७.)

रत्नं रत्नेन संगच्छते ।

रत्न रत्न के साथ जाता है ।

(८.)
न प्राणान्ते प्रकृतिर्विकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ।

उत्तम लोग चाहे प्राण चले जाएँ, किन्तु फिर भी वे अपनी प्रकृति को नहीं छोडते, उसमें किसी प्रकार की विकृति नहीं आने देते ।

(९.) उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तङ्गते तथा ।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।।

महान् लोग सूर्य की तरह उन्नति या विपत्ति आने पर हर्षित या दुःखी नहीं होते । सूर्य उदय होते समय भी रक्त होता है और अस्त होते समय भी रक्त ही होता है ।

(१०.)
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
गुणी यदि गुणी व्यक्ति के पास जाए तो वह गुण ही रहता है, किन्तु यदि कभी निर्गुणी व्यक्ति के पास चला चाए तो वह निर्गुण अर्थात् दोष बन जाता है ।

(११.) सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नद्यः, समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ।
वर्षा का पानी यदि नदी में गिरे तो वह पीने योग्य ही रहता है, किन्तु यदि वही पानी समुद्र में जाए तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता ।

(१२.) शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।
हमारा शरीर धर्म का साधन है ।

(१३.)
न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ।

(१४.)
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः ।
वह सभा सभा नहीं है, जिसमें कोई अनुभवी व्यक्ति न हो ।

(१५.)
नहि गण्यते क्षुद्रो जन्तु परिग्रहफल्गुताम् ।

क्षुद्र प्रवृत्ति वाले लोग किए गए उपकार को नहीं जानते हैं ।

(१६.)
न पुत्रात् परमो लाभः ।
पुत्र से बढकर कोई परम लाभ नहीं है ।

(१७.)
न भयं चास्ति जाग्रतः ।
जागने वाले को भय नहीं लगता ।

(१८.)
न मुक्ते परमा गतिः
मुक्ति से बढकर कोऊ परम गति नहीं है ।

(१९.)
नराणां नापितो धूर्तः ।
मनुष्यों में नापित धूर्त होता है ।

(२०.)
नवा वाणी मुखे मुखे ।
जितने मुँह, उतनी बातें ।

(२१.)
न शास्त्र वेदतः परम् ।
वेद से बढकर कोई शास्त्र परम (ऊपर) नहीं  है ।

(२२.)
न वैराग्यात् परभाग्यम् ।
वैराग्य से बढकर (ऊपर) कोई भाग्य नहीं ।

(२३.)
न शान्तेः परमं सुखम् ।
शान्ति से बढकर कोई परम सुख नहीं ।

(२४.)
न शरीर पुनः पुनः ।
मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता ।

(२५.)
न विवेकविना ज्ञानम् ।
विवेक के विना ज्ञान नहीं होता ।

(२६.)
नास्ति क्रोधसमो वह्नि ।
क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं ।

(२७.)
नास्ति कामसमो व्याधिः ।
वासना के समान कोई रोग नहीं ।

(२८.)
न समीक्ष्य परस्थानपूर्वमायतनं त्यजेत् ।
नए स्थान को जाने विना पूर्व स्थान को नहीं छोडना चाहिए ।

(२९.)
नासद्भिः किञ्चिदाचरेत् ।
दुर्जन व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिए ।

(३०.)
नाल्पीयान्बहु सुकृत हिनस्ति दोषः ।

(३१.)
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः ।
सुख के लिए मित्र पर्याप्त नहीं है और दुःख के लिए शत्रु पर्याप्त नहीं है ।

(३२.)
नार्यः समाश्रितजनं हि कलङ्कयति ।
श्रेष्ठ लोग अपने आश्रित लोगों को कलङ्कित नहीं करते ।

(३३.)
नारीणां भूषणं पतिः ।
नारियों का भूषण पति होता है ।

(३४.)
नानृतात् पातकं परम् ।
झूठ से बढकर कोई पातक नहीं होता ।

(३५.)
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः ।
कल्पलता की तरह यह भूमि विभिन्न प्रकार के फलों से युक्त है ।

(३६.)
नाधर्मश्चिरमृद्धये ।
धर्म से बढकर कोई ऋद्धि नहीं ।

(३७.)
नाकाले म्रियते जन्तुर्विद्ध शरशतैरपि ।
सैकडों बाणों से घायल व्यक्ति भी बिना काल के नहीं मरता ।

(३८.)
नहि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।
हितैषी व्यक्ति झूठ को मधुर करके नहीं बोलना चाहते ।

(३९.)
नहि मूला प्रसिद्धयति ।
मूल अर्थात् जड या नींव कभी प्रसिद्धि को नहीं पाते ।

(४०.)
नहि विचलति मैत्री दूरतोSपि स्मितानाम् ।
दूर होने पर उस व्यक्ति की मित्रता विचलित नहीं होती, जो मुस्कुराते रहते हैं ।

(४१.)
नहि सर्वेSपि कुर्वन्ति सभ्या युक्तिविवेचनम् ।
प्रत्येक व्यक्ति सभ्यता से युक्ति का विवेचन नहीं कर सकते ।

(४२.)
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशति मुखे मृगः ।
सोए हुए अर्थात् आलसी सिंह के मुख में कोई मृग प्रवेश नहीं करते ।

(४३.)
नहि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति ।
किए हुए उपकार को सज्जन लोग भूलते नहीं ।

(४४.)
न भार्यायाः परं सुखम् ।
पत्नी से बढकर कोई परम सुख नहीं ।

(४५.)
न परोदितं हि कलयन्ति कुमारा ।
छोटे लोग दूसरों के किए उपकारों को नहीं गिनते हैं ।

(४६.)
साहसे श्रीः प्रतिवसति । (मृच्छकटिकम्अङ्क४)
साहस में लक्ष्मी का वास होता है ।

(४७.)
सुदुर्लभा सर्वमनोरमा गिरः । (किरातार्जुनीयम्१४.५)
प्रत्येक प्रकार से मनोरम पर्वत दुर्लभ होता है ।

(४८.)
स्त्रिया भर्ता हि दैवतम् । (वा.रामा. २.३९.३१)
स्त्रियों के लिए पति ही सबसे बढकर देव है ।

(४९.)
सर्वः स्वार्थं समीहते । (शिशुपालवधम्२.६५)
प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थ चाहता है ।

(५०.)
सत्कारधनः खलु सज्जनः । (मृच्छकटिकम्२.१५)
सज्जन सत्कार के योग्य धन होता है ।

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सूक्तयः

(१.) मतिरेव बलाद् गरीयसी ।
बल से अधिक बुद्धि श्रेष्ठ है ।

(२.) भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ।” (अभिज्ञानशाकुन्तलम्१.१६)
होनी के लिए सब द्वार खुले रहते हैं ।

(३.) बुद्धिर्यस्य बलं तस्य ।” (चाणक्य-नीतिः१०.१६)
जिसके पास बुद्धि है उसके पास बल है ।

(४.) भवितव्यता खलु बलवती ।” (अभिज्ञानशाकुन्तलम्६.८)
होनहार बलवान् है ।

(५.) मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना ।
हर व्यक्ति की मति भिन्न होती है ।

(६.) अवश्यम्भाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।” (हितोपदेशः )
होनी बहुत बडी बलवान् है ।

(७.) बुद्धिः ज्ञानेन शुध्यति ।” (मनुस्मृतिः–)
बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है ।

(८.) उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः । (हितोपदेशः१.१७२)
जो काम उपाय (विवेक) से हो सकता है, वह पराक्रम से नहीं ।

(९.) ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः ।
ज्ञान बिना मुक्ति नहीं है ।

(१०.) क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ।” (कुमारसम्भवम्५.८६)
कार्य करने पर यदि फल भी मिल जाए तो सारे कष्ट और क्लेश भूल जाते हैं ।

 

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