संस्कृत-सूक्तयः
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(१.)
“अति सर्वत्र वर्जयेत् ।”
अति से सब जगह बचना चाहिये ।
(२.)
“गुणाः
पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ।”
गुण पूजा का
स्थान है, अर्थात् गुणी व्यक्ति पूजनीय (सम्माननीय) होता है, इसके लिए लिङ्ग और आयु नहीं देखी जाती ।
(३.)
“वज्रात् अपि
कठोराणि मृदूनि कुसुमात् अपि ।
लोकोत्तराणां
चेतांसि कः नु विज्ञातुम् अर्हति ॥”
महान् लोगों का हृदय भी महान् होता है । उनका हृदय वज्र से भी कठोर और फूल से भी अधिक कोमल होता है । उनके हृदय को जान पाना कठिन है ।
(४.)
“दुर्जनः
परिहर्तव्यो विद्ययाSलङ्कृतोSपि
सन् ।”
दुर्जन व्यक्ति
की सदैव उपेक्षा करनी चाहिए,
क्योंकि विद्या
से अलङ्कृत होने पर भी वह दुष्ट ही रहता है ।
(५.)
अति तृष्णा विनाशाय ।
अधिक लालच नाश कराती है ।
(६.)
“प्रारभ्य
चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति ।”
कार्य प्रारम्भ
करके श्रेष्ठ लोग पूर्ण किए बिना नहीं छोडते ।
(७.)
“रत्नं रत्नेन संगच्छते ।”
रत्न रत्न के साथ जाता है ।
(८.)
“न प्राणान्ते
प्रकृतिर्विकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ।”
उत्तम लोग चाहे प्राण चले जाएँ, किन्तु फिर भी वे अपनी प्रकृति को नहीं छोडते, उसमें किसी प्रकार की विकृति नहीं आने देते ।
(९.) “उदये
सविता रक्तो रक्तश्चास्तङ्गते तथा ।
सम्पत्तौ च
विपत्तौ च महतामेकरूपता ।।”
महान् लोग सूर्य की तरह उन्नति या विपत्ति आने पर हर्षित या दुःखी नहीं होते । सूर्य उदय होते समय भी रक्त होता है और अस्त होते समय भी रक्त ही होता है ।
(१०.)
“गुणा गुणज्ञेषु
गुणा भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।”
गुणी यदि गुणी
व्यक्ति के पास जाए तो वह गुण ही रहता है, किन्तु
यदि कभी निर्गुणी व्यक्ति के पास चला चाए तो वह निर्गुण अर्थात् दोष बन जाता है ।
(११.) सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नद्यः, समुद्रमासाद्य
भवन्त्यपेयाः ।”
वर्षा का पानी
यदि नदी में गिरे तो वह पीने योग्य ही रहता है, किन्तु
यदि वही पानी समुद्र में जाए तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता ।
(१२.) शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।”
हमारा शरीर धर्म
का साधन है ।
(१३.)
न
रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ।”
(१४.)
न सा सभा यत्र न
सन्ति वृद्धाः ।”
वह सभा सभा नहीं
है, जिसमें कोई अनुभवी व्यक्ति न हो ।
(१५.)
नहि गण्यते
क्षुद्रो जन्तु परिग्रहफल्गुताम् ।”
क्षुद्र प्रवृत्ति वाले लोग किए गए उपकार को नहीं जानते हैं ।
(१६.)
न पुत्रात् परमो
लाभः ।”
पुत्र से बढकर
कोई परम लाभ नहीं है ।
(१७.)
न भयं चास्ति
जाग्रतः ।”
जागने वाले को
भय नहीं लगता ।
(१८.)
न मुक्ते परमा
गतिः”
मुक्ति से बढकर
कोऊ परम गति नहीं है ।
(१९.)
नराणां नापितो
धूर्तः ।
मनुष्यों में
नापित धूर्त होता है ।
(२०.)
नवा वाणी मुखे
मुखे ।
जितने मुँह, उतनी
बातें ।
(२१.)
न शास्त्र वेदतः
परम् ।
वेद से बढकर कोई
शास्त्र परम (ऊपर) नहीं है ।
(२२.)
न वैराग्यात्
परभाग्यम् ।
वैराग्य से बढकर
(ऊपर) कोई भाग्य नहीं ।
(२३.)
न शान्तेः परमं
सुखम् ।
शान्ति से बढकर
कोई परम सुख नहीं ।
(२४.)
न शरीर पुनः
पुनः ।
मानव शरीर
बार-बार नहीं मिलता ।
(२५.)
न विवेकविना
ज्ञानम् ।
विवेक के विना
ज्ञान नहीं होता ।
(२६.)
नास्ति क्रोधसमो
वह्नि ।
क्रोध के समान
कोई अग्नि नहीं ।
(२७.)
नास्ति कामसमो
व्याधिः ।
वासना के समान
कोई रोग नहीं ।
(२८.)
न समीक्ष्य
परस्थानपूर्वमायतनं त्यजेत् ।
नए स्थान को
जाने विना पूर्व स्थान को नहीं छोडना चाहिए ।
(२९.)
नासद्भिः
किञ्चिदाचरेत् ।
दुर्जन व्यक्ति
के साथ किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिए ।
(३०.)
नाल्पीयान्बहु
सुकृत हिनस्ति दोषः ।
(३१.)
नालं सुखाय
सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः ।
सुख के लिए
मित्र पर्याप्त नहीं है और दुःख के लिए शत्रु पर्याप्त नहीं है ।
(३२.)
नार्यः
समाश्रितजनं हि कलङ्कयति ।
श्रेष्ठ लोग
अपने आश्रित लोगों को कलङ्कित नहीं करते ।
(३३.)
नारीणां भूषणं
पतिः ।
नारियों का भूषण
पति होता है ।
(३४.)
नानृतात् पातकं
परम् ।
झूठ से बढकर कोई
पातक नहीं होता ।
(३५.)
नानाफलैः फलति
कल्पलतेव भूमिः ।
कल्पलता की तरह
यह भूमि विभिन्न प्रकार के फलों से युक्त है ।
(३६.)
नाधर्मश्चिरमृद्धये
।
धर्म से बढकर
कोई ऋद्धि नहीं ।
(३७.)
“नाकाले म्रियते
जन्तुर्विद्ध शरशतैरपि ।”
सैकडों बाणों से
घायल व्यक्ति भी बिना काल के नहीं मरता ।
(३८.)
“नहि प्रियं
प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।”
हितैषी व्यक्ति
झूठ को मधुर करके नहीं बोलना चाहते ।
(३९.)
“नहि मूला
प्रसिद्धयति ।”
मूल अर्थात् जड
या नींव कभी प्रसिद्धि को नहीं पाते ।
(४०.)
“नहि विचलति
मैत्री दूरतोSपि स्मितानाम् ।”
दूर होने पर उस
व्यक्ति की मित्रता विचलित नहीं होती, जो
मुस्कुराते रहते हैं ।
(४१.)
नहि सर्वेSपि
कुर्वन्ति सभ्या युक्तिविवेचनम् ।
प्रत्येक
व्यक्ति सभ्यता से युक्ति का विवेचन नहीं कर सकते ।
(४२.)
नहि सुप्तस्य
सिंहस्य प्रविशति मुखे मृगः ।
सोए हुए अर्थात्
आलसी सिंह के मुख में कोई मृग प्रवेश नहीं करते ।
(४३.)
नहि कृतमुपकार
साधवो विस्मरन्ति ।
किए हुए उपकार
को सज्जन लोग भूलते नहीं ।
(४४.)
न भार्यायाः परं
सुखम् ।
पत्नी से बढकर
कोई परम सुख नहीं ।
(४५.)
न परोदितं हि
कलयन्ति कुमारा ।
छोटे लोग दूसरों
के किए उपकारों को नहीं गिनते हैं ।
(४६.)
साहसे श्रीः
प्रतिवसति । (मृच्छकटिकम्–अङ्क–४)
साहस में
लक्ष्मी का वास होता है ।
(४७.)
सुदुर्लभा
सर्वमनोरमा गिरः । (किरातार्जुनीयम्–१४.५)
प्रत्येक प्रकार
से मनोरम पर्वत दुर्लभ होता है ।
(४८.)
स्त्रिया भर्ता
हि दैवतम् । (वा.रामा. –२.३९.३१)
स्त्रियों के
लिए पति ही सबसे बढकर देव है ।
(४९.)
सर्वः स्वार्थं
समीहते । (शिशुपालवधम्–२.६५)
प्रत्येक
व्यक्ति स्वार्थ चाहता है ।
(५०.)
सत्कारधनः खलु
सज्जनः । (मृच्छकटिकम्–२.१५)
सज्जन सत्कार के
योग्य धन होता है ।
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सूक्तयः
(१.) “मतिरेव
बलाद् गरीयसी ।”
बल से अधिक बुद्धि श्रेष्ठ है ।
(२.) “भवितव्यानां
द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ।” (अभिज्ञानशाकुन्तलम्–१.१६)
होनी के लिए सब द्वार खुले रहते हैं ।
(३.) “बुद्धिर्यस्य
बलं तस्य ।” (चाणक्य-नीतिः–१०.१६)
जिसके पास बुद्धि है उसके पास बल है ।
(४.) “भवितव्यता
खलु बलवती ।” (अभिज्ञानशाकुन्तलम्–६.८)
होनहार बलवान् है ।
(५.) “मुण्डे
मुण्डे मतिर्भिन्ना ।”
हर व्यक्ति की मति भिन्न होती है ।
(६.) “अवश्यम्भाविनो
भावा भवन्ति महतामपि ।” (हितोपदेशः
)
होनी बहुत बडी बलवान् है ।
(७.) “बुद्धिः
ज्ञानेन शुध्यति ।” (मनुस्मृतिः–)
बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है ।
(८.) “उपायेन
हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः । (हितोपदेशः–१.१७२)
जो काम उपाय (विवेक) से हो सकता है, वह
पराक्रम से नहीं ।
(९.) “ऋते
ज्ञानात् न मुक्तिः ।”
ज्ञान बिना मुक्ति नहीं है ।
(१०.) “क्लेशः
फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ।” (कुमारसम्भवम्–५.८६)
कार्य करने पर यदि फल भी मिल जाए तो सारे कष्ट और क्लेश भूल जाते हैं
।
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